Wednesday 11 February 2015

कैसी बनेगी दिल्ली वाई फाई फ्री

न्यूयॉर्क की ऊंची इमारतों वाले मैनहैटन इलाके में टहलते हुए एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक के बीच इंटरनेट कनेक्शन अचानक बदल जाता है। अगर आईफोन में आस्क टू ज्वाइन नेटवर्क सेटिंग है, तो हर ब्लॉक के बाद फोन नए कनेक्शन के लिए पूछ लेता है। यस दबाने पर नया कनेक्शन जुड़ता चला जाता है और कई गलियों तक आप इंटरनेट से कनेक्ट होते चले जाते हैं। वैसे, पूरे न्यूयॉर्क में मुफ्त वाई फाई नहीं है।
Photo: AAP Facebook Timeline

कंप्यूटर पर बैठ कर मेल चेक करने का जमाना बीत गया। अब यह चलते फिरते स्मार्टफोन पर हो जाता है, जिसके लिए मोबाइल का डाटा खर्च करना पड़ता है और इस डाटा के लिए पैसे खर्चने होते हैं। पिछले दशक में स्टारबक्स जैसी कुछ कॉफी हाउसों ने मुफ्त वाई फाई की सुविधा दी थी, लेकिन उसके लिए घंटों एक ही जगह बैठना पड़ता है और इस दौरान कुछेक कप कॉफी तो पी ही ली जाती है। यानी खर्च उसमें भी हो ही जाता है। चलते फिरते मुफ्त वाई फाई मिलने पर समय और पैसे दोनों की बचत हो सकती है।
कितने शहर हैं वाई फाईः गूगल करने पर पता चला है कि अमेरिका के 57 शहरों में मुफ्त वाई फाई है, जिसे तकनीकी तौर पर म्युनिसिपल वायरलेस नेटवर्क कहते हैं। दुनिया के कई दूसरे शहर भी मुफ्त वाई फाई से जुड़े हैं। कई शहरों में सिर्फ सीमित जगहों पर मुफ्त वाई फाई है, जबकि कुछ जगहों पर पैसे खर्च कर वाई फाई इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन कई ऐसे शहर भी हैं, जहां प्रोजेक्ट फेल हो गया है और फिलहाल उन्हें वाई फाई फ्री बनाने की योजना छोड़ दी गई है। मुफ्त वाई फाई देने वाले ज्यादातर शहर आकार में छोटे और दौलत में संपन्न हैं। यहां विशालकाय नेटवर्क सिस्टम बनाने की जरूरत नहीं होती और आम शहरियों के पास इतने पैसे होते हैं कि टैक्स के तौर पर हर महीने कुछेक डॉलर ज्यादा देना बहुत अखरता नहीं।
दिल्ली में मुश्किल दोनों तरह की है। एक तो यह विशाल शहर है और दूसरा, लोगों के पास अतिरिक्त टैक्स देने की बहुत गुंजाइश नहीं है। आम आदमी पार्टी चाहे कितना भी मुफ्त वाई फाई का एलान करे और चाहे 150 करोड़ रुपये में इस प्रोजेक्ट को पूरा कर लेने का दावा करे, फिर भी उसे राजस्व बढ़ाना होगा और यह काम सरकारी पैसे यानी टैक्स से ही होगा। मुफ्त तो कुछ भी नहीं होता। वैसे 150 करोड़ रुपये में पूरी दिल्ली को वाई फाई करना लगभग असंभव है।

A square in New York
तकनीक की दिक्कतः भले ही मुंबई के बाद दिल्ली में भारत के सबसे ज्यादा इंटरनेट यूजर हैं और यह आंकड़ा एक करोड़ से भी ऊपर है। लेकिन इनमें से कई मोबाइल यूजर हैं, जिनके पास इंटरनेट कनेक्शन नहीं। यानी बुनियादी संरचना कमजोर है। तकनीकी तौर पर एक राउटर कोई 300 मीटर के दायरे तक सिग्नल पकड़ सकता है। यानी राउटरों को ऐसे फिट करना होगा कि एक का सिग्नल छोड़ते ही दूसरे का सिग्नल मिलने लगे। दिल्ली में हजारों, शायद लाखों राउटरों की जरूरत होगी और उन्हें फिर इंटरनेट प्रोवाइडरों के केबल से जोड़ा जाएगा। हो सकता है कि क्नॉट प्लेस और खान मार्केट जैसी जगहों पर यह संरचना बनी हुई हो लेकिन अगर मदनपुर खादर और खजूरी खास या मादीपुर की सोचें, तो वहां केबल से लेकर राउटर तक हर कुछ नए सिरे से बिठाना होगा। दिल्ली के चप्पे चप्पे में केबल और राउटर बिठाने में कितने समय और पैसे की जरूरत है, अंदाजा लगाया जा सकता है।
दूसरी समस्या स्पीड और लोड की है। सार्वजनिक इंटरनेट में किसी तरह की बंदिश नहीं होती। यानी एक साथ कई यूजर लॉगइन कर सकते हैं और लॉगइन रह सकते हैं। इससे जबरदस्त लोड बना रहेगा। अमेरिका की मिसाल बड़ी सटीक है। वहां औसत 8.6 एमबीपीएस डाउनलोड स्पीड है, जबकि वहां भी सार्वजनिक जगहों पर सिर्फ 1 एमबीपीएस। यानी कई बार तो मेल खुलने में ही घंटों लग सकते हैं। कुछ शहरों ने इससे निजात पाने के लिए लोगों को सीमित लॉगइन टाइम और सीमित डाटा दिया है। ऊपर से कोई ऐसा तरीका नहीं है, जिससे ज्यादा जरूरत वालों यानी गरीब तबके के लोगों को प्राथमिकता दी जा सके, जिनके पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है।
लेकिन सवाल है कि क्या निजी इंटरनेट और फोन प्रोवाइडरों की लॉबी इस काम को आसानी से होने देंगे। भारत में मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या औसत तौर पर दुनिया में सबसे ज्यादा और यह मोबाइल प्रोवाइडरों के लिए आमदनी का अच्छा खासा स्रोत है। मुफ्त वाई फाई उनकी झोली में छेद कर सकता है। इसका तरीका पब्लिक-प्राइवेट साझीदारी से निकल सकता है। सरकार संरचना बनाए और प्रोवाइर कनेक्शन दें। बदले में उनके विज्ञापन दिए जाएं।
पब्लिक-प्राइवेट गठजोड़ः गूगल ने अमेरिकी शहर सैन फ्रांसिस्को को मुफ्त वाई फाई बनाने की योजना बनाई है लेकिन कोई पक्का डेट नहीं दिया है। जाहिर है कि जब भी यह पूरा होगा, पूरे शहर में गूगल के एडवर्टाइजमेंट नजर आएंगे। पांच साल पहले याहू ने न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कैवयर पर एक साल तक मुफ्त वाई फाई दिया था। इस दौरान वहां की विशालकाय स्क्रीनों पर याहू के खूब इश्तिहार चले। फेसबुक भी इस दिशा में कदम उठा रहा है। रोमानिया के ब्रासोव शहर में फेसबुक के साथ लॉगइन करने पर इंटरनेट मुफ्त चल पड़ता है। केजरीवाल की इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए निजी भागीदारी की भारी जरूरत होगी।
वैसे इंटरनेट के बगैर आज के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती और फिनलैंड ने तो ब्रॉडबैंड कनेक्शन को मानवाधिकार तक घोषित कर दिया है। यह बात अलग है कि उनका देश भी अभी तक पूरी तरह मुफ्त वाई फाई नहीं हो पाया है। आम आदमी पार्टी की यह योजना आगे की सोच दर्शाती है और उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके टेक्नो सैवी टीम ने इन मुश्किलों के बारे में तो सोचा ही होगा।

Tuesday 10 February 2015

आम आदमी पार्टी की 7 चुनौतियां


भारत में जब वैकल्पिक राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा, तो 10 फरवरी 2015 का भी जरूर जिक्र होगा। धर्म, जाति और क्षेत्र से इतर राजनीति करते हुए आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जो प्रचंड बहुमत हासिल किया है, वह उसे बिलकुल अलग खाने में बिठाती है।

देश की सबसे पुरानी और मौजूदा दौर की सबसे मजबूत पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को एक ही झटके में जमीन सुंघा दिया। भला किसने सोचा होगा कि दो ढाई साल पहले बनी आम आदमी पार्टी देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों का देश की राजधानी में यह हश्र कर सकती है। बड़े से बड़ा चुनावी पंडित भी दिल्ली में इसे 70 फीसदी सीटों के आस पास ही रख रहा था लेकिन आम आदमी पार्टी को दिल्ली में 95 फीसदी सीटें मिली हैं, जो उत्तर भारत में नया इतिहास बनाता है। लेकिन यह इतिहास चेतावनी भी देता है कि पार्टी को कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे वह खुद इतिहास न बन जाए।
Photo: AAP Facebook Timeline
इस विशालकाय जीत ने पार्टी को जबरदस्त चुनौतियां भी दी हैं। विपक्ष विहीन सरकार को खुद ही अपनी सीमाएं तय करनी होंगी और उन बातों पर डटे रहना होगा, जिनके दम पर वह सत्ता में आई है। फिलहाल सात ऐसी बातें, जिन पर पार्टी को मजबूती के साथ अमल करने की जरूरत है।

1. दिल्ली की राजनीतिः अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को यह बात अच्छी तरह समझ आनी चाहिए कि हर किसी को दूसरा मौका नहीं मिलता है। दिल्ली की जनता ने उन्हें दूसरा मौका बिहार, उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के लिए नहीं दिया है। दिल्ली ने उन्हें अपने  शहर के लिए यह मौका दिया है। पांच साल का वक्त सुनने में बहुत लगता है लेकिन जिस तरह के वादे पार्टी ने किए हैं, उन्हें पूरा करने में कई कई साल लग सकते हैं।
लिहाजा केजरीवाल के पास समय की कमी होगी। उन्हें अपना पूरा ध्यान दिल्ली की जनता पर लगाना होगा। आने वाली दिनों में बिहार सहित कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। लोकसभा की तरह उन्हें उन राज्यों के चुनावों में कूदने की जरूरत नहीं, बल्कि उससे दूरी बनाए रखने की जरूरत है, ताकि दिल्ली पर पूरा ध्यान दिया जा सके।
2. गठजोड़ न करने की राजनीतिः केजरीवाल और उनकी पार्टी ने आम भारतीय की डूबती हुई नैया को तिनके का सहारा दिया है। जब उदास मन और नाउम्मीदी के साथ लोग यह समझने लगे थे कि राजनीति में ईमानदारी और मुद्दों की गुंजाइश नहीं बची है, उस समय आम आदमी पार्टी को यह कामयाबी मिली है। उन्हें समझना होगा कि जनता ने इसके साथ यह मैंडेट भी दे दिया है कि वे केजरीवाल से वाकई अलग तरह की राजनीति चाहते हैं। वैकल्पिक राजनीति में सत्ता का दंभ और लोभ मायने नहीं रखता। केजरीवाल ने एक बार सत्ता छोड़ कर इस बात को साबित भी किया है। दूसरी पार्टियों से दूरी ने उनके ईमानदार छवि को भी बनाए रखा है।

लेकिन उनकी प्रचंड जीत के साथ नीतीश कुमार, लालू यादव, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे के बयान उन्हें दिगभ्रमित कर सकते हैं। बिहार में बीजेपी को किनारे करने के लिए लालू या नीतीश उन्हें दावत दे सकते हैं। ममता बनर्जी राष्ट्रीय मुद्दों पर उनका साथ लेने का प्रयास कर सकती हैं। केजरीवाल को खुद को बार बार अहसास कराते रहना होगा कि उनकी राजनीति किसी लालू, किसी नीतीश या किसी ममता से अलग है। उनकी राजनीति आम लोगों के लिए है और वह दूसरी पार्टियों के साथ नहीं मिल सकते। ऐसा कदम उनके यूएसपी को खत्म कर देगा और वह फ्रेजाइल हो जाएंगे।

3. धर्म से दूरी की राजनीतिः दिल्ली में मतदान से ठीक पहले आम आदमी पार्टी ने जो एक सधा हुआ कदम उठाया था, वह था शाही इमाम के फतवे को खारिज करना। पार्टी ने बिलकुल चौंकाने वाले अंदाज में यह कदम उठाया और कहा कि उन्हें धर्म के आधार पर किसी का समर्थन नहीं चाहिए। यह एक दूरगामी कदम था और उसका अच्छा नतीजा भी निकला। बाबा राम रहीम से समर्थन लेने वाली बीजेपी के लिए यह कदम भी उलटा पड़ गया और उसे 70 में सिर्फ तीन सीटें मिलीं।

धर्म से दूरी बनाए रखना आम आदमी पार्टी को एक बार फिर अलग तरह की पार्टी बनाता है। भारत की आम जनता जानती है कि धर्म के आधार पर उन्हें न तो अलग किया जा सतका है और नही जोड़ा जा सकता है। धर्म से दूरी के साथ आप के चाहने वाले समझदार भारतीयों की संख्या भी बढ़ेगी।

4. वादा निभाने की राजनीतिः जीत के बाद हनीमून पीरियड को जितना छोटा कर दिया जाए, उतना ही अच्छा है। आम आदमी पार्टी ने बहुत बड़े वादे किए हैं। 20 कॉलेज खोलना, पूरी दिल्ली को वाई फाई करना, पूरी राजधानी में वीडियो कैमरा लगाना, उनकी मॉनिट्रिंग करना, बिजली के दाम कम करना और पानी मुफ्त करना। एक बार तो इन वादों को देख कर दिमाग घूम जाता है। लेकिन आम आदमी पार्टी के पास इन्हें पूरा करने का फॉर्मूला बताया जाता है।
Cartoon: AAP Facebook Timeline

फिर भी उसे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि पानी मुफ्त करने वक्त उसे ताकतवर जल माफिया से भिड़ना होगा, बिजली के दामों पर अंबानी तक के तकरार हो सकती है। मामला अदालतों में गया, तो लंबा वक्त लग सकता है। दो करोड़ की आबादी वाले शहर को वाई फाई करना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है। फूलप्रूफ प्रोग्राम भी हो, तो भी योजना शुरू करने और पहले राउटर लगाने में कई महीने लग सकते हैं। कॉलेज की इमारतें रातों रात नहीं खड़ी हो सकतीं। अगर पूरी तेजी से भी काम हो, तो कई साल लग सकते हैं। जनता की महत्वाकांक्षा इस वक्त परवान पर है। वह सपनों की दिल्ली देख रही है। केजरीवाल की पार्टी के पास इन सपनों को पूरा करने के लिए बहुत कम समय है।

5. बयानबाजी न करने की राजनीतिः जिस वक्त कांग्रेस पार्टी बीजेपी और प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत आरोप लगा रही थी, आम आदमी पार्टी पूरे सिस्टम को निशाना बना रही थी। प्रधानमंत्री के नौ लाख रुपये के सूट पहनने के मुद्दे से ज्यादा जरूरी है उस सिस्टम को उत्तरदायी बनाना, जो पूछ सके कि आखिर प्रधानमंत्री किस पैसे से नौ लाख रुपये का सूट पहन रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने यह काम बखूबी किया। लाख भड़काए जाने पर भी केजरीवाल ने किसी नेता का नाम नहीं लिया।

उसे इस बात पर आगे भी ध्यान देना होगा। केजरीवाल के सामने अपने ही यूएसपी को ढोने की जबरदस्त चुनौती है, जिसमें वह किसी भी आरोप के साथ पक्के कागजात लेकर चलते हैं। बयानबाजी करने से अलग सिस्टम बदलने की बात करनी होगी और खुद मिसाल बन कर उसे करके दिखाना भी होगा।

6. अहंकार से इतर राजनीतिः दिल्ली में जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी की पहली जमात ने जीत के साथ चिंता भी जताई, जो बहुत मुनासिब बात लगती है। 95 फीसदी सीटों की जीत बड़ी भारी होती है और उसके साथ अहंकार का चला आना बहुत स्वभाविक है। बुजुर्गों ने कहा है कि अहंकार जब रावण का नहीं चला, तो भला किसी और का क्या चल सकता है।केजरीवाल की टीम को इस ब्रह्मवाक्य बना लेना चाहिए।

जिस जनता ने उन पर इतना भरोसा किया है, उसे एक पल के लिए भी कमजोर या मूर्ख समझने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। मतदाता बहुत समझदार होता है और कई बार तो नेताओं से भी ज्यादा समझता है। अहंकार के मद में कई पार्टियां (मिसाल के तौर पर दिल्ली में बीजेपी) इस बात को नहीं समझ पाती हैं और अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मार जाती हैं। आप इससे सबक लेती दिख रही है और उसे आगे भी सबक लेने की जरूरत है।

7. अगली पीढ़ी की राजनीतिः दुनिया का मजबूत से मजबूत संगठन व्यक्ति आधारित नहीं हो सकता। आम आदमी पार्टी में फिलहाल अरविंद केजरीवाल के आस पास सिर्फ योगेंद्र यादव ही दिखते हैं। केजरीवाल को फ्रंट रो के लिए रफरफअगली टीम बनानी होगी। जल्दी। सरकार चलाते हुए जाहिर है कि वे संगठन पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगे। हो सकता है कि उन्हें संयोजक का पद भी छोड़ना पड़े। यानी इस काम के लिए नए कंधों की जरूरत है, जो एकदम से तो नजर नहीं आते। लेकिन शायद इसके लिए उनके पास कोई रणनीति हो। बेहतर हो कि पार्टी पर भरोसा करने वालों तक भी यह रणनीति पहुंच जाए।

Monday 26 January 2015

कॉमन मैन का चला जाना

Cartoon: RK Laxman

जब कोई रचना, रचनाकार से बड़ी हो जाती है, तो रचनाकार महान हो जाता है। ऊपर के कार्टून को देख कर इस बात को समझा जा सकता है। बाईं ओर जो आम आदमी है, उसे हर कोई जानता है। भला इससे बेहतर आम आदमी की परिभाषा क्या हो सकती है। इस आम आदमी को उकेरने वाले आरके लक्ष्मण ने खुद अपना कार्टून भी बनाया, जो ऊपर दाईं ओर दिख रहे हैं। लेकिन उन्हें जानने वाले लोग उतने नहीं, जितने उनके आम आदमी को जानते हैं।
आम आदमी के रचीयता के जाने पर आम आदमी के ब्लॉग पर कुछ लिखना जरा मुश्किल है। लेकिन लिखे बिना भी भला यह आम आदमी का ब्लॉग कैसे पूरा हो सकता है।
अखबार पर उकेरे गए कुछ निशान। एक बेहद सामान्य सा आदमी। सिर पर आधे उड़े बाल, शरीर पर चेक वाली नेहरू जैकेट, आंधों पर गांधी चश्मा और नाक के नीचे कुछ कुछ राजेंद्र प्रसाद जैसी मूछें। भारत के लिए तीन चौथाई सदी तक आम आदमी की परिभाषा ऐसी ही हुआ करती थी। आरके लक्ष्मण ने इस कॉमन मैन को अमर बना दिया है। आजादी के ठीक बाद जब लक्ष्मण ने कलम साधी, तो राजनीतिक विषयों से हट कर आम लोगों की जिंदगी को अपना विषय बना डाला। उनका कार्टून इस कदर हिट हुआ कि आम आदमी की परिभाषा ही बदल गई। यह आम आदमी किसी भी आम आदमी की तरह आशा, उम्मीद, डर और चुनौती का प्रतीक बन गया।
लक्ष्मण भी उन्हीें गिने चुने टैलेंट में हैं, जिनकी पहचान उनके टीचरों को नहीं हुई थी। जब उन्होंने मुंबई में जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में ड्राइंग और पेंटिंग की पढ़ाई करनी चाही, तो यूनिवर्सिटी के डीन का कहना था कि उन्हें लक्ष्मण के अंदर अच्छा आर्टिस्ट नहीं दिख रहा है। उन्हें मैसूर से आर्ट की पढ़ाई करनी पड़ी और इस दौरान अपने बड़े भाई केआर नारायणन की लिखी किताबों के लिए रेखाचित्र बनाते रहे.
लक्ष्मण किस कदर लोकप्रिय हुए, अंदाजा इस बात से भी लग सकता है कि उनके सम्मान में पुणे में आठ फुट ऊंचा आम आदमी की मूर्ति लगाई गई है.

Wednesday 21 January 2015

बुद्धू बक्से की बहस

अरविंद केजरीवाल ने जब से किरण बेदी को टीवी डिबेट के लिए चुनौती दी है, दो उम्मीदवारों के बीच डिबेट का मुद्दा गरम हो गया है. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बहाने जानते हैं कि आखिर क्या होती है डिबेट और क्यों होती है.
लाइव टेलीविजन का जमाना अपने बचपन में था. अमेरिका के लोगों के लिए भी टीवी कोई सस्ता साधन नहीं था और इसे घर घर तक पहुंचने में वैसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था, जैसे कि 1980 के दशक में कंप्यूटर को. देश के वाइस प्रेसिडेंट रिचर्ड निक्सन और तेजी से उभरते करिश्माई नेता जॉन एफ केनेडी के बीच 1960 में राष्ट्रपति पद का मुकाबला था और टीवी की लोकप्रियता को देखते हुए दोनों नेताओं के बीच ऐसी बहस कराई गई, जो अब अमेरिकी चुनाव के लिए संवैधानिक जरूरत बन गई है.
लिंकन के जमाने की बहस
राष्ट्रपति केनेडी और अब्राहम लिंकन के बीच कई समानताएं निकाली जाती हैं. इनमें एक समानता इस डिबेट की भी है. अमेरिकी इतिहास में पहली बार इस तरह की बहस अब्राहम लिंकन के ही जमाने में हुई थी, जब 1858 में उन्होंने सीनेटर पद के लिए स्टीफन डगलस के साथ सात राउंड की बहस की. इस बहस में मॉडरेटर नहीं हुआ करता था और दोनों उम्मीदवारों को डेढ़ डेढ़ घंटे का समय दिया जाता था. पहला उम्मीदवार एक घंटे तक अपनी बात रखता था और सवाल करता था. उसके बाद दूसरा उम्मीदवार अपनी बात रखने और जवाब देने के लिए डेढ़ घंटे का समय लेता था. फिर पहले उम्मीदवार को आधा घंटा समय जवाब देने का मिलता था. इस तरह पूरी बहस तीन घंटे चलती थी. बहस के बाद हुए चुनाव में लिंकन हार गए.
टीवी की कामयाबी
करीब 100 साल बाद टीवी की अहमियत देखते हुए ऐसी बहस दोबारा शुरू हुई. निक्सन और केनेडी की डिबेट खूब पसंद की गई. करोड़ों लोगों ने इसे टेलीविजन पर लाइव देखा और केनेडी ने चुनाव भी जीता. लेकिन कार्यकाल के दौरान ही उनकी हत्या कर दी गई और राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाली टेलीविजन बहस भी रुक गई. अगले तीन बार के अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए यह बहस नहीं कराई गई.
1976 में इस बहस की रिवायत दोबारा शुरू हुई. रोनाल्ड रीगन और जिमी कार्टर के बीच हुई बहस अमेरिका में सबसे ज्यादा देखी गई बहस है. इसके बाद इसकी साख कम होती गई और अब यह पहले जैसी लोकप्रिय नहीं रही.
अमेरिकी सिस्टम में उम्मीदवारों का फैसला महीनों पहले हो जाता है और उनके सामने नेता के नाम को लेकर किसी तरह का द्वंद्व नहीं चलता. उम्मीदवारों का अच्छा वक्ता होना तो लाजिमी होता ही है. समझा जाता है कि इन बहसों के जरिए अनिर्णय की स्थिति वाले वोटरों को लक्षित किया जाता है. ऐसे वोटर, जो आखिर तक अपना मन नहीं बना पाते हैं लेकिन दोनों उम्मीदवारों को आमने सामने देख कर फैसला कर सकते हैं.
लेकिन इस दौरान उम्मीदवारों का चौकन्ना रहना बेहद जरूरी होता है. एक गलतबयानी उनकी सारी तैयारियों को धूल में मिला सकता है. जाहिर बात है कि इस बहस में बेहतर वक्ता के बाजी मारने की संभावना ज्यादा रहती है. लेकिन इसके साथ तैयारी भी महत्वपूर्ण होती है. कई बार उम्मीदवार आंकड़ों के खेल में उलझ कर रह जाते हैं.
कितने देशों में बहस
अमेरिका के बाद कई दूसरे देशों ने भी इस तरह के डिबेट की परंपरा शुरू की और फिलहाल दुनिया के 13 मुल्कों में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पद के चुनाव से पहले बहस कराई जाती है. ब्रिटेन में दो की जगह तीन उम्मीदवारों की बीच बहस होती है. जर्मनी और फ्रांस सहित यूरोप के कई देश इस तरह की बहस कराते हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में भी चुनाव से पहले बहस कराई जाती है.
जहां अमेरिकी बहस में वहां की अर्थव्यवस्था पर खास नजर रखी जाती है, वहीं जर्मनी जैसे देशों में सबसे ज्यादा ध्यान विदेश नीति पर होता है. लोग यह जानने की कोशिश करते हैं कि आने वाली सरकार या नेता किस तरह की विदेश नीति लागू करने की कोशिश करेगा.
भारत में बहस
जहां तक भारत का सवाल है, वहां इस तरह की डिबेट की संभावना बहुत कम लगती है. वजह यह कि किसी भी स्तर पर चुनाव में दो सीधे प्रत्याशी नहीं होते. बहुपार्टी व्यवस्था होने की वजह से उम्मीदवार भी कई होते हैं और किन्हीं दो नेताओं को चुनना मुश्किल है. इसके अलावा वोटिंग का पैटर्न बिलकुल अलग होता है. लोग पार्टी और उसकी नीतियों, जाति, धर्म को ध्यान में रख कर पार्टियों को वोट देते हैं, किसी नुमाइंदे को नहीं. इतना ही नहीं, कई बार तो पार्टियां भी अपने नेता का नाम सामने नहीं रखतीं. ऐसे में डिबेट किनके बीच हो, इसी पर बहस हो जाती है.
इन सबके अलावा भारतीय टीवी की अपनी सीमाएं हैं. जहां का वोटर नून, तेल, लकड़ी की परेशानियों के बीच घिरा हो, वहां विदेश नीति और मानवाधिकार के मुद्दे पर बहस कराना टीवी वालों को बड़ा बोरिंग लगेगा.