Wednesday 21 January 2015

बुद्धू बक्से की बहस

अरविंद केजरीवाल ने जब से किरण बेदी को टीवी डिबेट के लिए चुनौती दी है, दो उम्मीदवारों के बीच डिबेट का मुद्दा गरम हो गया है. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बहाने जानते हैं कि आखिर क्या होती है डिबेट और क्यों होती है.
लाइव टेलीविजन का जमाना अपने बचपन में था. अमेरिका के लोगों के लिए भी टीवी कोई सस्ता साधन नहीं था और इसे घर घर तक पहुंचने में वैसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था, जैसे कि 1980 के दशक में कंप्यूटर को. देश के वाइस प्रेसिडेंट रिचर्ड निक्सन और तेजी से उभरते करिश्माई नेता जॉन एफ केनेडी के बीच 1960 में राष्ट्रपति पद का मुकाबला था और टीवी की लोकप्रियता को देखते हुए दोनों नेताओं के बीच ऐसी बहस कराई गई, जो अब अमेरिकी चुनाव के लिए संवैधानिक जरूरत बन गई है.
लिंकन के जमाने की बहस
राष्ट्रपति केनेडी और अब्राहम लिंकन के बीच कई समानताएं निकाली जाती हैं. इनमें एक समानता इस डिबेट की भी है. अमेरिकी इतिहास में पहली बार इस तरह की बहस अब्राहम लिंकन के ही जमाने में हुई थी, जब 1858 में उन्होंने सीनेटर पद के लिए स्टीफन डगलस के साथ सात राउंड की बहस की. इस बहस में मॉडरेटर नहीं हुआ करता था और दोनों उम्मीदवारों को डेढ़ डेढ़ घंटे का समय दिया जाता था. पहला उम्मीदवार एक घंटे तक अपनी बात रखता था और सवाल करता था. उसके बाद दूसरा उम्मीदवार अपनी बात रखने और जवाब देने के लिए डेढ़ घंटे का समय लेता था. फिर पहले उम्मीदवार को आधा घंटा समय जवाब देने का मिलता था. इस तरह पूरी बहस तीन घंटे चलती थी. बहस के बाद हुए चुनाव में लिंकन हार गए.
टीवी की कामयाबी
करीब 100 साल बाद टीवी की अहमियत देखते हुए ऐसी बहस दोबारा शुरू हुई. निक्सन और केनेडी की डिबेट खूब पसंद की गई. करोड़ों लोगों ने इसे टेलीविजन पर लाइव देखा और केनेडी ने चुनाव भी जीता. लेकिन कार्यकाल के दौरान ही उनकी हत्या कर दी गई और राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाली टेलीविजन बहस भी रुक गई. अगले तीन बार के अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए यह बहस नहीं कराई गई.
1976 में इस बहस की रिवायत दोबारा शुरू हुई. रोनाल्ड रीगन और जिमी कार्टर के बीच हुई बहस अमेरिका में सबसे ज्यादा देखी गई बहस है. इसके बाद इसकी साख कम होती गई और अब यह पहले जैसी लोकप्रिय नहीं रही.
अमेरिकी सिस्टम में उम्मीदवारों का फैसला महीनों पहले हो जाता है और उनके सामने नेता के नाम को लेकर किसी तरह का द्वंद्व नहीं चलता. उम्मीदवारों का अच्छा वक्ता होना तो लाजिमी होता ही है. समझा जाता है कि इन बहसों के जरिए अनिर्णय की स्थिति वाले वोटरों को लक्षित किया जाता है. ऐसे वोटर, जो आखिर तक अपना मन नहीं बना पाते हैं लेकिन दोनों उम्मीदवारों को आमने सामने देख कर फैसला कर सकते हैं.
लेकिन इस दौरान उम्मीदवारों का चौकन्ना रहना बेहद जरूरी होता है. एक गलतबयानी उनकी सारी तैयारियों को धूल में मिला सकता है. जाहिर बात है कि इस बहस में बेहतर वक्ता के बाजी मारने की संभावना ज्यादा रहती है. लेकिन इसके साथ तैयारी भी महत्वपूर्ण होती है. कई बार उम्मीदवार आंकड़ों के खेल में उलझ कर रह जाते हैं.
कितने देशों में बहस
अमेरिका के बाद कई दूसरे देशों ने भी इस तरह के डिबेट की परंपरा शुरू की और फिलहाल दुनिया के 13 मुल्कों में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पद के चुनाव से पहले बहस कराई जाती है. ब्रिटेन में दो की जगह तीन उम्मीदवारों की बीच बहस होती है. जर्मनी और फ्रांस सहित यूरोप के कई देश इस तरह की बहस कराते हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में भी चुनाव से पहले बहस कराई जाती है.
जहां अमेरिकी बहस में वहां की अर्थव्यवस्था पर खास नजर रखी जाती है, वहीं जर्मनी जैसे देशों में सबसे ज्यादा ध्यान विदेश नीति पर होता है. लोग यह जानने की कोशिश करते हैं कि आने वाली सरकार या नेता किस तरह की विदेश नीति लागू करने की कोशिश करेगा.
भारत में बहस
जहां तक भारत का सवाल है, वहां इस तरह की डिबेट की संभावना बहुत कम लगती है. वजह यह कि किसी भी स्तर पर चुनाव में दो सीधे प्रत्याशी नहीं होते. बहुपार्टी व्यवस्था होने की वजह से उम्मीदवार भी कई होते हैं और किन्हीं दो नेताओं को चुनना मुश्किल है. इसके अलावा वोटिंग का पैटर्न बिलकुल अलग होता है. लोग पार्टी और उसकी नीतियों, जाति, धर्म को ध्यान में रख कर पार्टियों को वोट देते हैं, किसी नुमाइंदे को नहीं. इतना ही नहीं, कई बार तो पार्टियां भी अपने नेता का नाम सामने नहीं रखतीं. ऐसे में डिबेट किनके बीच हो, इसी पर बहस हो जाती है.
इन सबके अलावा भारतीय टीवी की अपनी सीमाएं हैं. जहां का वोटर नून, तेल, लकड़ी की परेशानियों के बीच घिरा हो, वहां विदेश नीति और मानवाधिकार के मुद्दे पर बहस कराना टीवी वालों को बड़ा बोरिंग लगेगा.

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