Tuesday 10 February 2015

आम आदमी पार्टी की 7 चुनौतियां


भारत में जब वैकल्पिक राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा, तो 10 फरवरी 2015 का भी जरूर जिक्र होगा। धर्म, जाति और क्षेत्र से इतर राजनीति करते हुए आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जो प्रचंड बहुमत हासिल किया है, वह उसे बिलकुल अलग खाने में बिठाती है।

देश की सबसे पुरानी और मौजूदा दौर की सबसे मजबूत पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को एक ही झटके में जमीन सुंघा दिया। भला किसने सोचा होगा कि दो ढाई साल पहले बनी आम आदमी पार्टी देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों का देश की राजधानी में यह हश्र कर सकती है। बड़े से बड़ा चुनावी पंडित भी दिल्ली में इसे 70 फीसदी सीटों के आस पास ही रख रहा था लेकिन आम आदमी पार्टी को दिल्ली में 95 फीसदी सीटें मिली हैं, जो उत्तर भारत में नया इतिहास बनाता है। लेकिन यह इतिहास चेतावनी भी देता है कि पार्टी को कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे वह खुद इतिहास न बन जाए।
Photo: AAP Facebook Timeline
इस विशालकाय जीत ने पार्टी को जबरदस्त चुनौतियां भी दी हैं। विपक्ष विहीन सरकार को खुद ही अपनी सीमाएं तय करनी होंगी और उन बातों पर डटे रहना होगा, जिनके दम पर वह सत्ता में आई है। फिलहाल सात ऐसी बातें, जिन पर पार्टी को मजबूती के साथ अमल करने की जरूरत है।

1. दिल्ली की राजनीतिः अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को यह बात अच्छी तरह समझ आनी चाहिए कि हर किसी को दूसरा मौका नहीं मिलता है। दिल्ली की जनता ने उन्हें दूसरा मौका बिहार, उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के लिए नहीं दिया है। दिल्ली ने उन्हें अपने  शहर के लिए यह मौका दिया है। पांच साल का वक्त सुनने में बहुत लगता है लेकिन जिस तरह के वादे पार्टी ने किए हैं, उन्हें पूरा करने में कई कई साल लग सकते हैं।
लिहाजा केजरीवाल के पास समय की कमी होगी। उन्हें अपना पूरा ध्यान दिल्ली की जनता पर लगाना होगा। आने वाली दिनों में बिहार सहित कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। लोकसभा की तरह उन्हें उन राज्यों के चुनावों में कूदने की जरूरत नहीं, बल्कि उससे दूरी बनाए रखने की जरूरत है, ताकि दिल्ली पर पूरा ध्यान दिया जा सके।
2. गठजोड़ न करने की राजनीतिः केजरीवाल और उनकी पार्टी ने आम भारतीय की डूबती हुई नैया को तिनके का सहारा दिया है। जब उदास मन और नाउम्मीदी के साथ लोग यह समझने लगे थे कि राजनीति में ईमानदारी और मुद्दों की गुंजाइश नहीं बची है, उस समय आम आदमी पार्टी को यह कामयाबी मिली है। उन्हें समझना होगा कि जनता ने इसके साथ यह मैंडेट भी दे दिया है कि वे केजरीवाल से वाकई अलग तरह की राजनीति चाहते हैं। वैकल्पिक राजनीति में सत्ता का दंभ और लोभ मायने नहीं रखता। केजरीवाल ने एक बार सत्ता छोड़ कर इस बात को साबित भी किया है। दूसरी पार्टियों से दूरी ने उनके ईमानदार छवि को भी बनाए रखा है।

लेकिन उनकी प्रचंड जीत के साथ नीतीश कुमार, लालू यादव, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे के बयान उन्हें दिगभ्रमित कर सकते हैं। बिहार में बीजेपी को किनारे करने के लिए लालू या नीतीश उन्हें दावत दे सकते हैं। ममता बनर्जी राष्ट्रीय मुद्दों पर उनका साथ लेने का प्रयास कर सकती हैं। केजरीवाल को खुद को बार बार अहसास कराते रहना होगा कि उनकी राजनीति किसी लालू, किसी नीतीश या किसी ममता से अलग है। उनकी राजनीति आम लोगों के लिए है और वह दूसरी पार्टियों के साथ नहीं मिल सकते। ऐसा कदम उनके यूएसपी को खत्म कर देगा और वह फ्रेजाइल हो जाएंगे।

3. धर्म से दूरी की राजनीतिः दिल्ली में मतदान से ठीक पहले आम आदमी पार्टी ने जो एक सधा हुआ कदम उठाया था, वह था शाही इमाम के फतवे को खारिज करना। पार्टी ने बिलकुल चौंकाने वाले अंदाज में यह कदम उठाया और कहा कि उन्हें धर्म के आधार पर किसी का समर्थन नहीं चाहिए। यह एक दूरगामी कदम था और उसका अच्छा नतीजा भी निकला। बाबा राम रहीम से समर्थन लेने वाली बीजेपी के लिए यह कदम भी उलटा पड़ गया और उसे 70 में सिर्फ तीन सीटें मिलीं।

धर्म से दूरी बनाए रखना आम आदमी पार्टी को एक बार फिर अलग तरह की पार्टी बनाता है। भारत की आम जनता जानती है कि धर्म के आधार पर उन्हें न तो अलग किया जा सतका है और नही जोड़ा जा सकता है। धर्म से दूरी के साथ आप के चाहने वाले समझदार भारतीयों की संख्या भी बढ़ेगी।

4. वादा निभाने की राजनीतिः जीत के बाद हनीमून पीरियड को जितना छोटा कर दिया जाए, उतना ही अच्छा है। आम आदमी पार्टी ने बहुत बड़े वादे किए हैं। 20 कॉलेज खोलना, पूरी दिल्ली को वाई फाई करना, पूरी राजधानी में वीडियो कैमरा लगाना, उनकी मॉनिट्रिंग करना, बिजली के दाम कम करना और पानी मुफ्त करना। एक बार तो इन वादों को देख कर दिमाग घूम जाता है। लेकिन आम आदमी पार्टी के पास इन्हें पूरा करने का फॉर्मूला बताया जाता है।
Cartoon: AAP Facebook Timeline

फिर भी उसे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि पानी मुफ्त करने वक्त उसे ताकतवर जल माफिया से भिड़ना होगा, बिजली के दामों पर अंबानी तक के तकरार हो सकती है। मामला अदालतों में गया, तो लंबा वक्त लग सकता है। दो करोड़ की आबादी वाले शहर को वाई फाई करना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है। फूलप्रूफ प्रोग्राम भी हो, तो भी योजना शुरू करने और पहले राउटर लगाने में कई महीने लग सकते हैं। कॉलेज की इमारतें रातों रात नहीं खड़ी हो सकतीं। अगर पूरी तेजी से भी काम हो, तो कई साल लग सकते हैं। जनता की महत्वाकांक्षा इस वक्त परवान पर है। वह सपनों की दिल्ली देख रही है। केजरीवाल की पार्टी के पास इन सपनों को पूरा करने के लिए बहुत कम समय है।

5. बयानबाजी न करने की राजनीतिः जिस वक्त कांग्रेस पार्टी बीजेपी और प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत आरोप लगा रही थी, आम आदमी पार्टी पूरे सिस्टम को निशाना बना रही थी। प्रधानमंत्री के नौ लाख रुपये के सूट पहनने के मुद्दे से ज्यादा जरूरी है उस सिस्टम को उत्तरदायी बनाना, जो पूछ सके कि आखिर प्रधानमंत्री किस पैसे से नौ लाख रुपये का सूट पहन रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने यह काम बखूबी किया। लाख भड़काए जाने पर भी केजरीवाल ने किसी नेता का नाम नहीं लिया।

उसे इस बात पर आगे भी ध्यान देना होगा। केजरीवाल के सामने अपने ही यूएसपी को ढोने की जबरदस्त चुनौती है, जिसमें वह किसी भी आरोप के साथ पक्के कागजात लेकर चलते हैं। बयानबाजी करने से अलग सिस्टम बदलने की बात करनी होगी और खुद मिसाल बन कर उसे करके दिखाना भी होगा।

6. अहंकार से इतर राजनीतिः दिल्ली में जीत हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी की पहली जमात ने जीत के साथ चिंता भी जताई, जो बहुत मुनासिब बात लगती है। 95 फीसदी सीटों की जीत बड़ी भारी होती है और उसके साथ अहंकार का चला आना बहुत स्वभाविक है। बुजुर्गों ने कहा है कि अहंकार जब रावण का नहीं चला, तो भला किसी और का क्या चल सकता है।केजरीवाल की टीम को इस ब्रह्मवाक्य बना लेना चाहिए।

जिस जनता ने उन पर इतना भरोसा किया है, उसे एक पल के लिए भी कमजोर या मूर्ख समझने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। मतदाता बहुत समझदार होता है और कई बार तो नेताओं से भी ज्यादा समझता है। अहंकार के मद में कई पार्टियां (मिसाल के तौर पर दिल्ली में बीजेपी) इस बात को नहीं समझ पाती हैं और अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मार जाती हैं। आप इससे सबक लेती दिख रही है और उसे आगे भी सबक लेने की जरूरत है।

7. अगली पीढ़ी की राजनीतिः दुनिया का मजबूत से मजबूत संगठन व्यक्ति आधारित नहीं हो सकता। आम आदमी पार्टी में फिलहाल अरविंद केजरीवाल के आस पास सिर्फ योगेंद्र यादव ही दिखते हैं। केजरीवाल को फ्रंट रो के लिए रफरफअगली टीम बनानी होगी। जल्दी। सरकार चलाते हुए जाहिर है कि वे संगठन पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगे। हो सकता है कि उन्हें संयोजक का पद भी छोड़ना पड़े। यानी इस काम के लिए नए कंधों की जरूरत है, जो एकदम से तो नजर नहीं आते। लेकिन शायद इसके लिए उनके पास कोई रणनीति हो। बेहतर हो कि पार्टी पर भरोसा करने वालों तक भी यह रणनीति पहुंच जाए।

2 comments: